सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय अठरावा – मोक्षसंन्यास योग
श्रीगणेशाय नमः
कृपावंता गजानना। तू पाठीशी असताना।
हुरूप ये गीता कळण्या। अनुभव हा ॥ १ ॥
आरंभी जो खचलेला। तो उत्साहे भरलेला।
कृष्णाचा अर्जुन चेला। शोभतसे ॥ २ ॥
कर्म करावे आलेले। ईश्वरपूजन ते झाले।
नकळत मन निर्मळ बनले। गुरुकृपा ॥ ३ ॥
सद्गुरु हृदयी वसतात। कर्मे करवुनि घेतात।
मन:शांति ये हातात। गुरुकृपा ॥ ४ ॥
कर्मफलाचा लोभ नसो। अपयश येता क्षोभ नसो।
आत सर्वदा हरी दिसो। ही आशा ॥ ५ ॥
जे येते ते सांगावे। गावोगावी हिंडावे।
सन्मार्गा जन लावावे। ही सेवा ॥ ६ ॥
कर्मावरती अधिकार। फलावरी तो नसणार।
तरीहि कर्मे करणार। योगी तो ॥ ७ ॥
मना खुबीने जिंकावे। साक्षित्वाने वागावे।
अलिप्ततेने वर्तावे। व्यवहारी ॥ ८ ॥
सद्विचार सोबती खरा। साथ सर्वदा देणारा।
कर्मि कुशलता देणारा। सन्मित्र ॥ ९ ॥
समाज माझा श्रीराम। समाज माझा श्रीकृष्ण।
जनात पाहिन जनार्दन। तत्वच हे ॥ १० ॥
स्वभाव माझा सुधरेन। प्रामाणिक मी राहीन।
कष्ट करिन तर जेवेन। निश्चय हा ॥ ११ ॥
शरण जायचे कृष्णाला। पातकातुनी तरायला।
निवांत, निश्चल होण्याला। उपाय हा ॥ १२ ॥
यश आले, हुरळणे नको। पराजयाचा खेद नको।
कर्तृत्वाचा गर्व नको। योगेशा ॥ १३ ॥
धर्माचा मज अर्थ कळो। पुन्हा न मन हे कधी मळो।
जे कळले ते सहज वळो। योगेशा ॥ १४ ॥
यत्न व्यर्थ ना ठरतात। सुधारणा तर हातात।
कळेल गीता जगण्यात। योगेशा । १५ ॥
गीता सगळ्यांची आई। पडत्याला उचलुन घेई।
योगसार हाती देई। ही माता ॥ १६ ॥
प्रतिदिनि गीता वाचावी। बाणवेल ती गुण दैवी।
उठता बसता चिंतावी। श्रीगीता ॥ १७ ॥
गीता ही सर्वांकरिता। औषध ही रोगांकरिता।
देत आसरा निराश्रिता। श्रीगीता ॥ १८ ॥
विकारास मी जिंकेन। तरच धनंजय म्हणवेन।
ध्यानी भजनी रंगेन। गोपाळा ॥ १९ ॥
घरोघरी गीता जावी। सकलांनी ही वाचावी।
गीता आचरणी यावी। ही आशा ॥ २० ॥
सिद्ध जाहली ही पोथी। गीतेची ही फलश्रुती।
श्रीरामाला हर्ष किती। गुरुकृपा ॥ २१ ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
श्रीगीता पोथी अर्थात् सार गर्भ श्रीगीता समाप्त