Thursday, June 29, 2017

सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय अठरावा – मोक्षसंन्यास योग

सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय अठरावा – मोक्षसंन्यास योग

श्रीगणेशाय नमः

कृपावंता गजानना। तू पाठीशी असताना।
हुरूप ये गीता कळण्या। अनुभव हा ॥ १ ॥
आरंभी जो खचलेला। तो उत्साहे भरलेला।
कृष्णाचा अर्जुन चेला। शोभतसे ॥ २ ॥
कर्म करावे आलेले। ईश्वरपूजन ते झाले।
नकळत मन निर्मळ बनले। गुरुकृपा ॥ ३ ॥
सद्गुरु हृदयी वसतात। कर्मे करवुनि घेतात।
मन:शांति ये हातात। गुरुकृपा ॥ ४ ॥
कर्मफलाचा लोभ नसो। अपयश येता क्षोभ नसो।
आत सर्वदा हरी दिसो। ही आशा ॥ ५ ॥
जे येते ते सांगावे। गावोगावी हिंडावे।
सन्मार्गा जन लावावे। ही सेवा ॥ ६ ॥
कर्मावरती अधिकार। फलावरी तो नसणार।
तरीहि कर्मे करणार। योगी तो ॥ ७ ॥
मना खुबीने जिंकावे। साक्षित्वाने वागावे।
अलिप्ततेने वर्तावे। व्यवहारी ॥ ८ ॥
सद्विचार सोबती खरा। साथ सर्वदा देणारा।
कर्मि कुशलता देणारा। सन्मित्र ॥ ९ ॥
समाज माझा श्रीराम। समाज माझा श्रीकृष्ण।
जनात पाहिन जनार्दन। तत्वच हे ॥ १० ॥
स्वभाव माझा सुधरेन। प्रामाणिक मी राहीन।
कष्ट करिन तर जेवेन। निश्चय हा ॥ ११ ॥
शरण जायचे कृष्णाला। पातकातुनी तरायला।
निवांत, निश्चल होण्याला। उपाय हा ॥ १२ ॥
यश आले, हुरळणे नको। पराजयाचा खेद नको।
कर्तृत्वाचा गर्व नको। योगेशा ॥ १३ ॥
धर्माचा मज अर्थ कळो। पुन्हा न मन हे कधी मळो। 
जे कळले ते सहज वळो। योगेशा ॥ १४ ॥
यत्न व्यर्थ ना ठरतात। सुधारणा तर हातात।
कळेल गीता जगण्यात। योगेशा । १५ ॥
गीता सगळ्यांची आई। पडत्याला उचलुन घेई।
योगसार हाती देई। ही माता ॥ १६ ॥
प्रतिदिनि गीता वाचावी। बाणवेल ती गुण दैवी।
उठता बसता चिंतावी। श्रीगीता ॥ १७ ॥
गीता ही सर्वांकरिता। औषध ही रोगांकरिता।
देत आसरा निराश्रिता। श्रीगीता ॥ १८ ॥
विकारास मी जिंकेन। तरच धनंजय म्हणवेन।
ध्यानी भजनी रंगेन। गोपाळा ॥ १९ ॥
घरोघरी गीता जावी। सकलांनी ही वाचावी।
गीता आचरणी यावी।  ही आशा ॥ २० ॥
सिद्ध जाहली ही पोथी। गीतेची ही फलश्रुती।
श्रीरामाला हर्ष किती। गुरुकृपा ॥ २१ ॥
  
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
श्रीगीता पोथी अर्थात् सार गर्भ श्रीगीता समाप्त

Wednesday, June 28, 2017

सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय सतरावा – श्रद्धात्रयविभाग योग

सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय सतरावा – श्रद्धात्रयविभाग योग

श्रीगणेशाय नमः

वंदना घ्या गजानना। श्रद्धारहस्य उकलाना।
विलया न्या हो अहंपणा। विनती ही ॥ १ ॥
श्रद्धेविण कृति होत नसे। सात्विक श्रद्धा उचित असे।
राजस तामस बरी नसे। घे ध्यानी ॥ २ ॥
श्रद्धेवर वर्तन ठरते। श्रद्धा आचरणी येते।
सुधारणे या श्रद्धेते। कर्तव्य ॥ ३ ॥
नको फलाशा कधी मनी। विधियुत कर्म करी ज्ञानी।
सात्विक कर्मे आचरुनी। वर्तावे ॥ ४ ॥
सवय असावी दानाची। सवय असावी सेवेची।
सवय असावी कष्टाची। तनामना ॥ ५ ॥
आहाराची सुधारणा। आचाराची सुधारणा।
स्वभावातही सुधारणा। शक्य असे ॥ ६ ॥
आदर ठेवा वृद्धांचा। माय तात आचार्यांचा।
नम्रभाव हा नित्याचा। पथ्यकर ॥ ७ ॥     
मने मनाला शिकवावे। आत्मसंयमन हवे हवे।
सद्गुण अंगी मुरवावे। ही गीता ॥ ८ ॥
सहानुभूती दुःख हरी। सहानुभूती सुख देई।
शीतलता अंतरि येई। राहावया ॥ ९ ॥
सात्विकतेने कर्म करी। ईश्वरास तू सदा स्मरी।
सात्विक भावा मनि ठेवी। ही गीता ॥ १० ॥
ॐ तत् सत् हा मंत्र जप। जाणुन अर्था करी तप।
कधी न लागे तुज पाप। हो सुखिया ॥ ११ ॥
दिले दान ते देवाला। सेवा पोचे श्रीहरिला।
स्वाध्याये नर सुधारला। हे सत्य ॥ १२ ॥
खचायचे ना कधी मनी। सात्विक श्रद्धा बाळगुनी।
करावयाची ही करणी। ईश्वर तू ॥ १३ ॥
हृदयी धरावे दीनाला। पथ दावा चुकलेल्याला।
सदन समजुनी विश्वाला। विचरावे ॥ १४ ॥
कर्ता मी नच, नको फल। तो मी जाणिव आत्मबल।
ॐ तत् सत् चे मधुर फल। हे ऐसे ॥ १५ ॥
श्रद्धेचे बळ जाणावे। आपण अपणा निरखावे।
विकारवश ना कधि व्हावे। मार्ग असा ॥ १६ ॥
कर्तव्याची ही बुद्धी। समजावी ऋद्धी-सिद्धी।
अंत:करणाची शुद्धी। प्रसाद हा ॥ १७ ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
    

Tuesday, June 27, 2017

सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय सोळावा – दैवासुरसंपद् विभाग योग

सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय सोळावा – दैवासुरसंपद् विभाग योग

श्रीगणेशाय नमः

गुणेशा हे गणाधिशा। वंदन घे हे परमेशा।
तुझिया भाविका वत्सा। सांभाळावे ॥ १ ॥
अर्जुन कृष्णाला रुचला। अर्जुनास हरि आवडला।
दैवी गुण लाविती लळा। कारण हे ॥ २ ॥
सत्य, अहिंसा, निर्भयता। यज्ञ, दान, तप नियमितता।
रुची चिंतनी, नि:स्पृहता। गुण दैवी ॥ ३ ॥
तेज, अध्ययनि निरलसता। आत्मसंयमन, सुस्थिरता।
मनःशुद्धि, वचनी मृदुता। गुण दैवी ॥ ४ ॥
ऐसे गुणधन बहुमोल। जीवन बनते अनमोल।
ढळू न देते ते तोल। मुक्ति मिळे ॥ ५ ॥
तामस वृत्तीचा दैत्य। त्याच्या चित्ती ना सत्य।
आत्मघातकी, निर्बुद्ध। त्यासम तो ॥ ६ ॥
वर्तन तर त्याचे स्वैर। साधूंशी धरतो वैर।
क्रोर्ये करतो संहार। नराधम ॥ ७ ॥
सदा गुंतला मोहात। रौरव मार्गाला जात।
धर्म आचरे दंभार्थ। असुरच तो ॥ ८ ॥
द्रव्यलालसा छळताहे। मायामोहे भ्रमताहे।
भोगविलासी रुतताहे। उद्धट तो ॥ ९ ॥
नाशा जवळी आणतसे।  ज्ञानाचा लवलेश नसे।
समाजकंटक बनलासे।  नराधम ॥ १० ॥     
मनुजदेह जरि वरी वरी। जात ठरतसे वृत्तिवरी।
आत्मसंयमन देव करी।  दैत्य दुजा ॥ ११ ॥
जीवनात जर सुख यावे। मी देवाचा म्हणवावे।
दैवी गुण संपादावे।  हा मार्ग ॥ १२ ॥
शुद्ध मनाचा ध्यास धरा। रात्रंदिन अभ्यास करा।
शरीर झिजवा उपकारा। सुजाण हो ॥ १३ ॥
कष्टाची भाकरी बरी। कामक्रोध हे क्रूर अरी।
जर बळी पडलो, अविचारी। हो घात ॥ १४ ॥ 
सदाचार, नीती, धर्म। ईश्वरभक्तीचे मर्म।
सावधतेने करु कर्म। या जगती ॥ १५ ॥
स्वर्ग नरक दोन्ही जगती। अंतरातही ते असती।
विकासता दैवी वृत्ती। शांति मिळे ॥ १६ ॥
सुविचारी मन हा योग। कुविचारी मन हा रोग।
जिवाशिवांचा सहयोग। भक्तिबले ॥ १७ ॥
भलेबुरे हे जर कळते। दूर पिटाळा लोभाते।
भगवद्गीता हे कथिते। ईश्वर व्हा ॥ १८ ॥    

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Monday, June 26, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय पंधरावा – पुरुषोत्तम योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय पंधरावा – पुरुषोत्तम योग

श्रीगणेशाय नमः

गजानना हे पुरुषोत्तमा। किती गावा तुझा महिमा।
थक्कित जेथे उमा-रमा। पामर मी ॥ १ ॥
तो परमात्मा पुरुषोत्तम। तत्व आगळे महत्तम।
तो जाणे जो अरिंदम। व्यवहारी ॥ २ ॥
जगरूपी अश्वत्थ पहा। वेद वानिती ऐक पहा।
मुळात ईश्वर दिसे न हा। आश्चर्य ॥ ३ ॥
कर्मे घडवी भलीबुरी। फळे तयांची भलीबुरी।
जो तो अंगुलि मुखी धरी। भांबावे ॥ ४ ॥
हाव हावरी नाचवते। हरिण धावुनी उरि फुटते।
दूर दूर ते सुख पळते। दुःख मिळे ॥ ५ ॥
लोभ धनाचा सोडावा। मद सत्तेचा सोडावा।
का करणे हेवादावा। तूच पाहा ॥ ६ ॥
जिंकायाचे मोहाला। खंडायाचे दु:खाला।
अज्ञानावरती घाला। घालू या ॥ ७ ॥
अनासक्ति दे शांति मना। प्रवेशते अंतरि करुणा।
हीच हीच ती सुधारणा। ये घडुन ॥ ८ ॥
रजोगुणाते सोडावे। तमोगुणाते टाकावे।
सत्वगुणाला जोडावे। मनुजाने ॥ ९ ॥
जधी जाणवे एकपणा। रंग चढतसे हरिभजना।
सुख येते चालत सदना। भक्ताच्या ॥ १० ॥
अंश ईश्वरी आहे मी। ज्ञानी मानव धरी मनी।
द्वंद्वे त्यजुनी शांति वरी। तो सुखिया ॥ ११ ॥
अनंत विश्वी चैतन्य। अनुभविणारा ही धन्य।
काय करत त्या कार्पण्य। ज्ञानियाला ॥ १२ ॥
या देहाचा मोह नसे।  मी कर्ता हा गर्व नसे। 
द्वंद्व मुक्त जो नित्य असे। तो विरळा ॥ १३ ॥
देह क्षर अक्षर आत्मा। श्रेष्ठ याहुनी परमात्मा।
पुरुषोत्तम त्यालाच म्हणा। असीम तो ॥ १४ ॥
जाणावे विश्वात्मक देवा। उठता बसता तो ध्यावा।
साधक विश्वात्मक व्हावा। पुरुषार्थी ॥ १५ ॥
रूपकास पिंपळवृक्ष। श्रोत्यांचे वेधी लक्ष।
राहू आचरणी दक्ष। संकल्प ॥ १६ ॥
लिहवुन इतके तू घेशी। गुरुमाउली तू गमशी।
सुगम सुगम गीता करशी। दयाघना ॥ १७ ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
    

Saturday, June 24, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय चौदावा – गुणत्रयविभाग योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय चौदावा – गुणत्रयविभाग योग 
श्रीगणेशाय नमः

ऐसे वाटे गजानना। जाणुन घ्यावे तिन्ही गुणा।
सुगंध यावा आचरणा। सद्भावे ॥ १ ॥
कसा वागतो मानव हा? तुझीच वृत्ती तूच पहा।
जे उत्तम ते घेत रहा। सुधारशी ॥ २ ॥
सात्विक मानव सुविचारी। परमार्थाचा अधिकारी।
आत्मनिरीक्षण नित्य करी। छंदच हा ॥ ३ ॥
त्याचा सात्विक आहार। विलासात ना रमणार।
उदात्त त्याचा आचार। उघडच हे ॥ ४ ॥
रजोगुणी तो लोभ धरी। तो अविचारे पाप करी।
दुष्ट वासना उरी धरी। असुखी तो ॥ ५ ॥
तमोगुणी तो अज्ञानी। अधोगती प्रगती मानी।
अनीतीस नीती मानी। दैत्य जसा ॥ ६ ॥
कुठे जायचे ठरवावे। कोण व्हायचे ठरवावे।
कसे वागणे ठरवावे। मनुजाने ॥ ७ ॥
सत्वगुण असे सौख्याचा। रजोगुण असे स्वार्थाचा।
तमोगुण असे दुःखाचा। सूत्र असे ॥ ८ ॥
चुकता चुकता शिकायचे। प्रगतिपथावर असायचे।
विवेकेच वागायाचे। ठरवावे ॥ ९ ॥
हिंसेने हिंसा वाढे। द्वेषाने पडतात तिढे।
हेकट अपुल्या मनी कुढे। दिसताहे ॥ १० ॥
त्रिगुणांचा चाले खेळ। घालावा सुंदर मेळ।
निरीक्षणा काढा वेळ। जरा तरी ॥ ११ ॥
सुधारेन मी ध्यास हवा। भजनाचा आनंद हवा।  
त्यागाचा आदर्श हवा। नित्य पुढे ॥ १२ ॥
गुणातीत तो जाणावा। माथा तेथे झुकवावा।
पाठ तयाचा गिरवावा। उत्साहे ॥ १३ ॥
जशी भावना कर्म तसे। कर्म जसे मग फलहि तसे।
जैसे संचित भोग तसे। जगरीत ॥ १४ ॥
चिंतन देवाचे देणे। पूजन आत्म्याचे लेणे।
उपासनेने सुधारणे। आपणाला ॥ १५ ॥
सत्संगाचे औषध घ्या। हरिनामाचे अमृत प्या।
अवधानाचे दानच द्या। हे पथ्य ॥ १६ ॥
अंतरातला श्रीकृष्ण। सत्व राहिला शिकवून। 
दुःख निराशा झटकून। भक्ति करा ॥ १७ ॥
चौदाव्या या अध्यायी। प्रश्नाचे उत्तर राही।
पुन:पुन्हा मनुजा पाही। सुधार तू ॥ १८ ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय तेरावा – क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय तेरावा – क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग

श्रीगणेशाय नमः

आत्मरूपा गजानना। स्वीकारा हो वंदना।
अध्यात्माते विवरा ना। कृपा करा ॥ १ ॥
देह निसर्गातुन झाला। मी आहे जाणिव त्याला।
विषयाकर्षण बहु ज्याला। क्षेत्र म्हणा ॥ २ ॥
कोण चालवी देहाला। कोण व्यापतो देहाला।
देही म्हणती जन ज्याला। आत्मा तो ॥ ३ ॥
काय चालले त्या कळते। कसे चालवावे कळते।
क्षेत्रज्ञान तया असते। ऐसा तो ॥ ४ ॥
जन्ममरण या देहाला। विकार नसती आत्म्याला।
क्षेत्रज्ञच वदती त्याला। ते ज्ञाते ॥ ५ ॥
जीवात्मा जैसा देही। विश्वी ईश तसा राही।
तो ईश्वर सर्वां ठायी। ज्ञानच हे ॥ ६ ॥
सुखदु:खे जी एकाची। ती तर अवघ्या जगताची।
जाण असावी नित्याची। सकलांना ॥ ७ ॥
अंतर्मुख जन होवोत। अंतरि देवा पाहोत।
विकारांस जन जिंकोत। आशा ही ॥ ८ ॥
कर हे करताती काम। रसना घेऊ दे नाम।
अंतरात उपजे प्रेम। हरि आला ॥ ९ ॥
देहसुखाला जो विटला। आत्मानंदी तो रमला।
चैतन्याचा तो पुतळा। साधुजन ॥ १० ॥
मृदु वचने जन सुखवावे। पतिता वरती काढावे।
उणे न क्षण राहू द्यावे। कवणाचे ॥ ११ ॥
परदु:खाची जाण हवी। परमसुखाची आस हवी।
नि:स्पृहता कर्मात हवी। चिंतन हे ॥ १२ ॥
स्वभाव येतो सुधारता। आचरणी ये मानवता।
ज्ञानी प्रिय साऱ्या जगता। उघडच हे ॥ १३ ॥
उच्च नीच हा भेद नसो। मी-माझे हा स्वार्थ नसो।
जो भेटे तो हरी दिसो। हा भाव ॥ १४ ॥
अध्यात्माचे हे ज्ञान। ईश्वरीय गीतागान।
अनासक्ती आहे प्राण। संतांचा ॥ १५ ॥
सुख द्यावे तर सुख घ्यावे। परकेपण ही लोपावे।
कुठेहि विश्वी विहरावे। मुक्तपणे ॥ १६ ॥
जे वाचावे, चिंतावे। कृतीत नेटे आणावे।
अध्यात्मे जग उजळावे। हे ज्ञान ॥ १७ ॥
तेरावा अध्याय असा। सत्कर्माचा देत वसा।
सामंजस्ये सुखी असा। हे सांगे ॥ १८ ॥    

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Friday, June 23, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय बारावा – भक्ति योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय बारावा – भक्ति योग

श्रीगणेशाय नमः

ॐ नमस्ते गौरीकुमरा। भक्तियोग तुम्ही विवरा।
बालकाचा हात धरा। चालवाया ॥ १ ॥
मानवी रूपी दिसतो हरी। अव्यक्तही कळला हरी।
उपासना परि कुठली बरी? प्रश्न पार्था ॥ २ ॥
हास्य कृष्णाचे मनोहर।  अर्जुना, उत्तर अवधार।
जिज्ञासा तव सुखकर। सांगतो मी ॥ ३ ॥
दोन्ही उपासना रुचती। मूर्तिपूजक बहु आवडती।
भक्ति करुन योगी बनती। उत्साही ते ॥ ४ ॥
अदृश्याचे ध्यान कठिण। एकाग्र मन दुर्लभ जाण।
इतके कष्ट करी कवण। परमार्थी ॥ ५ ॥
भक्त हवा कर्मयोगी। भक्त हवा ज्ञानयोगी।
भक्त हवा ध्यानयोगी। सामाजिक ॥ ६ ॥
कर्मफला गौण मानी। नव्हे कधी अभिमानी।
विश्वव्यापी रूप ज्ञानी। ऐसा भक्त ॥ ७ ॥
निजकर्तव्यी तो तत्पर। विश्व मानी अपुले घर।
गेला गेला अहंकार। ऐसा भक्त ॥ ८ ॥
माझी भक्ती करता करता। योगसार ये त्याच्या हाता।
चित्त शुद्ध बघता बघता। योगी भक्त ॥ ९ ॥
शिकता शिकता दोष जाती। सद्गुण तेथे प्रवेश करती।
पुढचे पाउल मार्गावरती। ऐसा भक्त ॥ १० ॥
दया, क्षमा, शांती यांनी। मंडित झाला भक्त ज्ञानी।
मजला पूजा कर्मफुलांनी। ऐसा भक्त ॥ ११ ॥
कोणी वंदा, कोणी निंदा। याचा स्वहिताचा धंदा।
लाभे त्यातच तृप्त सदा। ऐसा भक्त ॥ १२ ॥
सुखदुःखी राही शांत। ईश्वर चिंतन अविश्रांत।
मुरे प्रीती अंगांगात। ऐसा भक्त ॥ १३ ॥
देव येथे देव तेथे। आत जे जे विश्वी ते ते।
विकासाला आतुरते। भाविक मन ॥ १४ ॥
नाम ईश्वराचे गावे। रूप ईश्वराचे ध्यावे।
स्वये ईश्वरच व्हावे।  हीच भक्ती ॥ १५ ॥
मनःशांती योगवृत्ती। कर्मकुशलता योगवृत्ती।
ध्याने लाभे योगवृत्ती। भक्ताला त्या ॥ १६ ॥
विकारांचे विसर्जन। सद्गुणांचे संकलन।
डोळसपणे करी मन। ऐसा भक्त ॥ १७ ॥
जितेंद्रिय मने पूत। सत्कर्मी तो सदा रत।
रात्रंदिन मज ध्यात। ऐसा भक्त ॥ १८ ॥
भक्तियोग देई स्फूर्ती। तोच देई मनःशांती।
अध्यायाची गाण्या महती। कोणाला ये? ॥ १९ ॥
   
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Thursday, June 22, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय अकरावा – विश्वरूपदर्शन योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय अकरावा – विश्वरूपदर्शन योग

श्रीगणेशाय नमः

गणेशा हे विनविले। दे गा कल्पनेचे डोळे।
विश्वरूपे वेडे केले। शहाण्यासी ॥ १ ॥
आदि तूच, मध्य तूच। मध्य तूच, अंत तूच।
अंत तूच सर्व तूच। ऐकले मी ॥ २ ॥
वर्णिले आत्मरूप। आत्मरूप, विश्वरूप।
दाखवी  ते दिव्यरूप। जरी शक्य ॥ ३ ॥
तुझा हट्ट पुरवितो। दिव्यदृष्टी तुला देतो।
भक्त किती आवडतो। कळो जनां ॥ ४ ॥ 
शंखचक्रगदाधारी। रूप पाहा डोळेभरी।
आता सौम्यरूपधारी। ध्यानी ठेव ॥ ५ ॥
नाही सीमा विस्ताराला। उग्ररूप घेतलेला।
निघे जगा गिळायाला। माझे रूप ॥ ६ ॥
ज्वालामुखी जणु आहे। मृत्युमुख ते मी आहे।
सर्व सर्व भक्षिताहे। भूक माझी ॥ ७ ॥
युद्ध कर, करू नको। गर्व वृथा धरू नको।
मीच कर्ता गर्जू नको।  काळ तो मी ॥ ८ ॥
आधीच या मारलेले। तुझे साधन मी केले।
विश्व सर्व माझ्यामुळे। तू न कोणी ॥ ९ ॥
जाण ईश्वरी वैभव। क्षुद्र माणसाचा गर्व।
तुज लढवी स्वभाव। क्षत्रियाचा ॥ १० ॥
जसा सौम्य तसा रौद्र। जसा शांत तसा उग्र।
हातपायही सहस्र। दिसते ना ॥ ११ ॥
नको गर्व शूरत्वाचा। नको गर्व कर्तृत्वाचा
अहंभाव अज्ञानाचा। सोडी पार्था ॥ १२ ॥
भक्तिभाव आवडला। विश्वरूपाचा सोहळा।
कोणी अन्ये न पाहिला। भाग्यवंता ॥ १३ ॥
कर्तव्याते नित्य कर। फळ अर्पून सत्वर।
माझा ध्यास सदा धर। अर्जुना तू ॥ १४ ॥
सोड, सोड व्यक्तिस्वार्थ। पाहा समाजाचे हित।
ठेव स्वरूपा ध्यानात। मननाने ॥ १५ ॥
दोन्ही सगुण निर्गुण। रूपे ध्यानात घेऊन।
विश्वी मला निरखून। शुद्ध व्हावे ॥ १६ ॥
ईश्वरच महाकाल। सौम्य तसा विकराल।
मना बनवी विशाल। कृपा त्याची ॥ १७ ॥
गीता निगर्वी करते। गीता भक्ती शिकविते।
गीता मोह घालवते। हळूहळू ॥ १८ ॥
अध्याय हा अकरावा। थोर विस्मयाचा ठेवा।
संपवीत देहभावा। भाविकाच्या ॥ १९ ॥
नाट्यमय हा अध्याय। वाटे ऐकता विस्मय।
भक्ता विश्व हरिमय। योगबळे ॥ २० ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Wednesday, June 21, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय दहावा – विभूति योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय दहावा – विभूति योग

श्रीगणेशाय नमः

गजानना एकदंता। वक्रतुण्डा, चतुर्हस्ता।
आदि न अंत न तुज तत्वत:। नमो नम: ॥ १ ॥
अर्जुनाच्या वरी भक्ती। जाणुनी तो शुद्ध मती।
कृष्णा वाटे बोलू किती। ओघ चाले ॥ २ ॥
ओघ चाले भाषणाचा। प्रवाहो हा जान्हवीचा।
सुधा लाजे अशी वाचा। योगेशाची ॥ ३ ॥
जन्म ना ज्या मृत्यु कैचा। सारथी ना अर्जुनाचा।
सर्वेश्वर हा विश्वाचा। ज्ञान होई ॥ ४ ॥
गंगा निघे उद्धराया। सिद्ध स्वामी ज्ञान द्याया।
दिव्य श्रद्धा असे पाया। मंदिराचा ॥ ५ ॥
भक्त भगवंताचे नाते। शब्द कोते वर्णायाते।
जाणती ते परस्पराते। ऐक्यभावे ॥ ६ ॥
देव पाहू कसा कोठे? पूजू त्याला असे वाटे।
औत्सुक्य हे मनी दाटे। नीर लोटे ॥ ७ ॥
भगवंत हा स्वसंवेद्य। सर्वेश्वर हा असे आद्य।
वेदांचे हे प्रतिपाद्य। अनिर्वाच्य ॥ ८ ॥
कृपा करी जगन्नाथा। दिव्य रूपे वर्णी स्वत:।
अच्युता हे दयावंता। उद्धरी बा ॥ ९ ॥
उपासना करायाची। करावी ती उदात्ताची।
उत्कृष्टाची, विभूतीची। अत्यादरे ॥ १० ॥
विभूती या असंख्यात। कोण करी मोजदाद?
पार्था पाहा उत्तमात। मलाच तू ॥ ११ ॥
नगात मी हिमालय। पांडवात मी कौंतेय।
शूंमधे मीच गाय। आहे, आहे ॥ १२ ॥
भक्तांमध्ये नारद मी। तपस्व्यात प्रल्हाद मी।
सेनानीत स्कंद तो मी। आहे, आहे ॥ १३ ॥
सत्कार्याचा पुरस्कार। दुर्गुणाचा तिरस्कार।
सद्धर्माचा तो प्रचार। माझी पूजा ॥ १४ ॥
कार्यक्षेत्र स्वीकारावे। एकरूप त्याशी व्हावे।
दुर्गुणांना नुरू द्यावे। माझी सेवा ॥ १५ ॥
आदि मीच, मध्य मीच। अंत मीच, सर्व मीच।
मीहि तूच, तूही मीच। भक्तिसार ॥ १६ ॥
भक्तीने हो साध्य योग। विकाराने जडे रोग।
सामरस्य हा संयोग। माझ्याशीच ॥ १७ ॥
दिव्यत्वाची जेथे वस्ती। भव्यत्वाची जेथे वस्ती।
औदार्याची जेथे वस्ती। तेथे मीच ॥ १८ ॥
करी गीतापारायण। नरे व्हावे नारायण।
हेच श्रेष्ठ उपायन। मला द्यावे ॥ १९ ॥
ऐसा दहावा अध्याय। नित्य ध्यात गात जाय।
प्रेम देत घेत जाय। संदेश हा ॥ २० ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥