सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय सोळावा – दैवासुरसंपद् विभाग योग
श्रीगणेशाय नमः
गुणेशा हे गणाधिशा। वंदन घे हे परमेशा।
तुझिया भाविका वत्सा। सांभाळावे ॥ १ ॥
अर्जुन कृष्णाला रुचला। अर्जुनास हरि आवडला।
दैवी गुण लाविती लळा। कारण हे ॥ २ ॥
सत्य, अहिंसा, निर्भयता। यज्ञ, दान, तप नियमितता।
रुची चिंतनी, नि:स्पृहता। गुण दैवी ॥ ३ ॥
तेज, अध्ययनि निरलसता। आत्मसंयमन, सुस्थिरता।
मनःशुद्धि, वचनी मृदुता। गुण दैवी ॥ ४ ॥
ऐसे गुणधन बहुमोल। जीवन बनते अनमोल।
ढळू न देते ते तोल। मुक्ति मिळे ॥ ५ ॥
तामस वृत्तीचा दैत्य। त्याच्या चित्ती ना सत्य।
आत्मघातकी, निर्बुद्ध। त्यासम तो ॥ ६ ॥
वर्तन तर त्याचे स्वैर। साधूंशी धरतो वैर।
क्रोर्ये करतो संहार। नराधम ॥ ७ ॥
सदा गुंतला मोहात। रौरव मार्गाला जात।
धर्म आचरे दंभार्थ। असुरच तो ॥ ८ ॥
द्रव्यलालसा छळताहे। मायामोहे भ्रमताहे।
भोगविलासी रुतताहे। उद्धट तो ॥ ९ ॥
नाशा जवळी आणतसे। ज्ञानाचा लवलेश नसे।
समाजकंटक बनलासे। नराधम ॥ १० ॥
मनुजदेह जरि वरी वरी। जात ठरतसे वृत्तिवरी।
आत्मसंयमन देव करी। दैत्य दुजा ॥ ११ ॥
जीवनात जर सुख यावे। मी देवाचा म्हणवावे।
दैवी गुण संपादावे। हा मार्ग ॥ १२ ॥
शुद्ध मनाचा ध्यास धरा। रात्रंदिन अभ्यास करा।
शरीर झिजवा उपकारा। सुजाण हो ॥ १३ ॥
कष्टाची भाकरी बरी। कामक्रोध हे क्रूर अरी।
जर बळी पडलो, अविचारी। हो घात ॥ १४ ॥
सदाचार, नीती, धर्म। ईश्वरभक्तीचे मर्म।
सावधतेने करु कर्म। या जगती ॥ १५ ॥
स्वर्ग नरक दोन्ही जगती। अंतरातही ते असती।
विकासता दैवी वृत्ती। शांति मिळे ॥ १६ ॥
सुविचारी मन हा योग। कुविचारी मन हा रोग।
जिवाशिवांचा सहयोग। भक्तिबले ॥ १७ ॥
भलेबुरे हे जर कळते। दूर पिटाळा लोभाते।
भगवद्गीता हे कथिते। ईश्वर व्हा ॥ १८ ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
No comments:
Post a Comment