सार गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय सतरावा – श्रद्धात्रयविभाग योग
श्रीगणेशाय नमः
वंदना घ्या गजानना। श्रद्धारहस्य उकलाना।
विलया न्या हो अहंपणा। विनती ही ॥ १ ॥
श्रद्धेविण कृति होत नसे। सात्विक श्रद्धा उचित असे।
राजस तामस बरी नसे। घे ध्यानी ॥ २ ॥
श्रद्धेवर वर्तन ठरते। श्रद्धा आचरणी येते।
सुधारणे या श्रद्धेते। कर्तव्य ॥ ३ ॥
नको फलाशा कधी मनी। विधियुत कर्म करी ज्ञानी।
सात्विक कर्मे आचरुनी। वर्तावे ॥ ४ ॥
सवय असावी दानाची। सवय असावी सेवेची।
सवय असावी कष्टाची। तनामना ॥ ५ ॥
आहाराची सुधारणा। आचाराची सुधारणा।
स्वभावातही सुधारणा। शक्य असे ॥ ६ ॥
आदर ठेवा वृद्धांचा। माय तात आचार्यांचा।
नम्रभाव हा नित्याचा। पथ्यकर ॥ ७ ॥
मने मनाला शिकवावे। आत्मसंयमन हवे हवे।
सद्गुण अंगी मुरवावे। ही गीता ॥ ८ ॥
सहानुभूती दुःख हरी। सहानुभूती सुख देई।
शीतलता अंतरि येई। राहावया ॥ ९ ॥
सात्विकतेने कर्म करी। ईश्वरास तू सदा स्मरी।
सात्विक भावा मनि ठेवी। ही गीता ॥ १० ॥
ॐ तत् सत् हा मंत्र जप। जाणुन अर्था करी तप।
कधी न लागे तुज पाप। हो सुखिया ॥ ११ ॥
दिले दान ते देवाला। सेवा पोचे श्रीहरिला।
स्वाध्याये नर सुधारला। हे सत्य ॥ १२ ॥
खचायचे ना कधी मनी। सात्विक श्रद्धा बाळगुनी।
करावयाची ही करणी। ईश्वर तू ॥ १३ ॥
हृदयी धरावे दीनाला। पथ दावा चुकलेल्याला।
सदन समजुनी विश्वाला। विचरावे ॥ १४ ॥
कर्ता मी नच, नको फल। ‘तो मी’ जाणिव आत्मबल।
ॐ तत् सत् चे मधुर फल। हे ऐसे ॥ १५ ॥
श्रद्धेचे बळ जाणावे। आपण अपणा निरखावे।
विकारवश ना कधि व्हावे। मार्ग असा ॥ १६ ॥
कर्तव्याची ही बुद्धी। समजावी ऋद्धी-सिद्धी।
अंत:करणाची शुद्धी। प्रसाद हा ॥ १७ ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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