Saturday, June 17, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय सातवा – ज्ञानविज्ञान योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय सातवा – ज्ञानविज्ञान  योग

श्रीगणेशाय नमः

अगा उदारा गजानना। द्या समरसता आकलना।
ईशभजनि मज लावाना। लवलाही ॥ १ ॥
मन लावि माझ्या ठायी। आश्रय मम करुनी राही।
योगाभ्यासी रत होई। धनंजया ॥ २ ॥
रूप ईश्वरी जाणावे। ज्ञान हवे, विज्ञान हवे।
एकरूप त्याशी व्हावे। हे भजन ॥ ३ ॥
तत्त्व काय जाणावे। इथे-तिथे त्या पाहावे।
सद्गुण अंगी मुरवावे। हे भजन ॥ ४ ॥
माणुसकीने वागावे। विकारवश ना कधि व्हावे।
मने मनाला शिकवावे। हे भजन ॥ ५ ॥
पंचमहाभूती आहे। मी, मी ऐसे स्फुरताहे।
विश्वा व्यापुन उरलाहे। भगवंत ॥ ६ ॥
या विश्वाचा निर्माता। पालक–पोषक संहर्ता।
कोण असे त्याच्या परता। भगवंत ॥ ७ ॥
मनात ज्याच्या भाव जसा। तयास वाटे देव तसा।
विश्वावर त्याचाच ठसा। जाणवतो ॥ ८ ॥
आईची ती वत्सलता। संतांची ती मानवता।
तत्त्वज्ञांची तत्परता। भगवंत ॥ ९ ॥
विश्व देह, ईश्वर देही। सर्वच आहे त्या देही।
जो आहे सकला ठायी। भगवंत ॥ १० ॥
सगुण जसा तो, निर्गुण तो। जगता व्यापुन उरेच तो।
दिसे न परी जाणवतो। भगवंत ॥ ११ ॥
नाही केवळ मंदिरी तो। न कोंडला मूर्तीतहि तो।
जगापासुनी लपतो तो। तरि आहे ॥ १२ ॥
सद्गुण दर्शन तयामुळे। धर्मस्थापन तयामुळे।
ज्ञानोदयही तयामुळे। धर ध्यानी ॥ १३ ॥
भगवंताचे स्मरण हवे। अरूप कैसे उमगावे।
मना उलटण्या हवे हवे। चिंतन हे ॥ १४ ॥
रिता ठाव त्याविण नाही। तत्त्व हेच ध्यानी घेई।
ईश्वर बनणे ही होई। हरिपूजा ॥ १५ ॥
आश्रय हरिचा जो घेतो। हरिमय तो बनुनी जातो।
अद्वयानुभव जो घेतो। भक्त खरा ॥ १६ ॥
ईश्वरास जर जाणावे। ईशरूप बनुनी जावे।
गुणातीत होता यावे। ध्यास जडो ॥ १७ ॥
क्रोध न ज्या, न शिवे स्वार्थ। ऐसा विरळा जगतात।
भक्त नि योगी प्रिय होत। भगवंता ॥ १८ ॥
इथे सातवा अध्याय। हे सुजना सांगुनि जाय।
योगयुक्त भक्ता सोय। सर्व असे ॥ १९ ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥


No comments: