सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय नववा – राजविद्याराजगुह्य योग
श्रीगणेशाय नमः
मनरमणा श्रीगजानना। स्वीकारावे या नमना।
शिकवी भक्ती, कर करुणा। विघ्नहरा ॥ १ ॥
भगवंताचा व्याप किती। विस्तारा त्या नसे मिती।
त्या भजणे कवण्या रीती। प्रश्न पडे ॥ २ ॥
ईश्वर आहे चराचरी। हरी अंतरी बाहेरी।
विश्वरूप आहेच हरी। पाहा, पाहा ॥ ३ ॥
विश्वा व्यापुन उरलेला। उपासनेने वश झाला।
संतांनी हरि ओळखला। बहुरूपी ॥ ४ ॥
आत्मरूप ते चिंतावे। आनंदा उपभोगावे।
ज्ञान ईश्वरी वितरावे। भक्तिच ही ॥ ५ ॥
नामी रमला तो भक्त। विभक्त नाही तो भक्त।
भूती भेटे भगवंत। दयाघन ॥ ६ ॥
निंद्य त्याज्य ते टाकावे। वंद्य तेवढे जोडावे।
भक्तिपथावर चालावे। दिनक्रम ॥ ७ ॥
सगळी रूपे श्रीहरिची। सर्व ठिकाणे श्रीहरिची।
जाण देत या सत्याची। गुरुराजा ॥ ८ ॥
या हो या सकलांनो या। दिव्यत्वाचा आनंद घ्या।
अवधानाचे दानच द्या। भक्ति करा ॥ ९ ॥
देह विसरणे ही भक्ती। निर्हेतुक प्रीती भक्ती।
सान थोर सगळे रमती। भजनात ॥ १० ॥
खुले दार हे सकलांना। वाव नसे उपचरांना।
भक्ती मिळवुन दे ज्ञाना। शुभदा ती ॥ ११ ॥
जे द्यावे ते भक्तीने। फळे फुले किंवा पाने।
तो तोषे जलबिंदुने। असा हरी ॥ १२ ॥
नरनारी सर्व हरी। रावरंक सगळेच हरी।
ऐशी समता तिथे हरी। समजावे ॥ १३ ॥
हरिस भजावे हरि व्हावे। ऐक्याला त्या समजावे।
दुजेपणाला सोडावे। हे भजन ॥ १४ ॥
चुकला जर येथे कोणी। श्रीहरि घे सांभाळोनी।
दया ईश्वरा घ्या ध्यानी। भक्ति करा ॥ १५ ॥
सात्विक व्हावे वृत्तीने। सात्विक व्हा आहाराने।
सात्विक व्हा आचाराने। भक्ति वदे ॥ १६ ॥
शुद्ध शांत मन हा योग। भक्ताचा हरिशी योग।
प्रभु-भक्तांचा सहयोग। त्यासम तो ॥ १७ ॥
नवव्या या अध्यायात। सद्गुरु भक्ती शिकवीत।
अशांत कुणि ना राज्यात। भक्तीच्या ॥ १८ ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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