Sunday, June 11, 2017

सार-गर्भ गीता (श्रीगीता पोथी) ; अध्याय पहिला : अर्जुनविषाद योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले 

अध्याय पहिला : अर्जुनविषाद योग 
श्री गणेशाय नमः 

गजानना तू बुद्धिदाता। तूच कर्ता, विघ्नहर्ता।
वाढवी मम पात्रता। गीताभ्यासी॥१॥
शारदे तू लाव गोडी। कळो गीता थोडी थोडी।
ज्ञान-भक्ती जोड जोडी। माय माझे॥२॥
सद्गुरो हे करुणाकरा। अंतःकरण भावे भरा।
लेकराला हाती धरा। चालवाया॥३॥
गीता नसे पार्थासाठी। गीता असे सर्वांसाठी। 
बालबोधिनी ऐसी कीर्ती। गीतेची या॥४॥
’लढेन मी’ ही खुमखुमी। अर्जुनाच्या अंतर्यामी 
वातविकार हा तर ’मी, मी’। करी घात॥५॥
लढायाचे कशासाठी? अर्जुनाला पडे भ्रांती।
असावधा छळे खंती। नित्याचीच॥६॥
अंतःकरणी दया येई। वीरवृत्ती दूर जाई। 
कोण मी? हे भान नाही। अर्जुनाला॥७॥
वीर पार्थ दीनवाणा। आत्मबली पडे उणा। 
अज्ञानाच्या लाख खुणा। वागण्यात॥८॥ 
कृष्ण मात्र पूर्ण शांत। हासरा हा आत्मतृप्त। 
सर्वसाक्षी स्वये होत। वरी मौन॥९॥ 
जीवनाचे तत्वज्ञान। कर्तव्याचे देत भान 
सोऽहं स्फुरे दिव्य गान। अंतरंगी॥१०॥ 
गेला नाही शरण कृष्णा। धनंजया छळे तृष्णा।
भोवळ आली तनामना। कुरुक्षेत्री॥११॥
’मोह’ नाव अज्ञानाचे दु:ख रूप अज्ञानाचे। 
अति मूढपण अर्जुनाचे। शस्त्रत्याग॥१२॥
कर्मत्याग हे ही मर्म। आले नाही ध्यानी मर्म। 
विसरला पार्थ धर्म। अज्ञानाने॥१३॥
तुटे बंध संयमाचा। पूर लोटे आसवांचा।
कंठ दाटे पांडवाचा। धर्मक्षेत्री॥१४॥
अर्जुनाची विषण्णता। माधवाची प्रसन्नता।
दोघे देहे निकट असता। किती दूर॥१५॥
जिज्ञासेचा जन्म झाला। काय लाभ कमी झाला?
’वाचिवीर’ श्रोता झाला। पूर्वपुण्ये॥१६॥
असे पार्थ असंख्यात। कृष्ण एक अंतरात।
घ्यावा बोध प्रसंगात। ज्याने त्याने॥१७॥
मने मने ओवी ओवी। मंदिरात गावी गावी।
गीतापोथी सिद्ध व्हावी। शांतवाया॥१८॥
स्वरूपाच्या आनंदात। नित्यपाठ गात गात।
प्रकाशतो अंतरात। आत्मसूर्य॥१९॥
माधवा तू कृपा करी। द्वैतभाव पूर्ण हरी।
अडे तेव्हां लिहिता करी। श्रीरामाला॥२०॥
प्रथमाध्याय पूर्ण झाला। गुरुकृपालाभ झाला।
पुढे झाला प्रसादाला। नम्रतेने॥२१॥
॥श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥

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