सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय तेरावा – क्षेत्रक्षेत्रज्ञ योग
श्रीगणेशाय नमः
आत्मरूपा गजानना। स्वीकारा हो वंदना।
अध्यात्माते विवरा ना। कृपा करा ॥ १ ॥
देह निसर्गातुन झाला। ‘मी आहे’ जाणिव त्याला।
विषयाकर्षण बहु ज्याला। क्षेत्र म्हणा ॥ २ ॥
कोण चालवी देहाला। कोण व्यापतो देहाला।
देही म्हणती जन ज्याला। आत्मा तो ॥ ३ ॥
काय चालले त्या कळते। कसे चालवावे कळते।
क्षेत्रज्ञान तया असते। ऐसा तो ॥ ४ ॥
जन्ममरण या देहाला। विकार नसती आत्म्याला।
क्षेत्रज्ञच वदती त्याला। ते ज्ञाते ॥ ५ ॥
जीवात्मा जैसा देही। विश्वी ईश तसा राही।
‘तो ईश्वर’ सर्वां ठायी। ज्ञानच हे ॥ ६ ॥
सुखदु:खे जी एकाची। ती तर अवघ्या जगताची।
जाण असावी नित्याची। सकलांना ॥ ७ ॥
अंतर्मुख जन होवोत। अंतरि देवा पाहोत।
विकारांस जन जिंकोत। आशा ही ॥ ८ ॥
कर हे करताती काम। रसना घेऊ दे नाम।
अंतरात उपजे प्रेम। हरि आला ॥ ९ ॥
देहसुखाला जो विटला। आत्मानंदी तो रमला।
चैतन्याचा तो पुतळा। साधुजन ॥ १० ॥
मृदु वचने जन सुखवावे। पतिता वरती काढावे।
उणे न क्षण राहू द्यावे। कवणाचे ॥ ११ ॥
परदु:खाची जाण हवी। परमसुखाची आस हवी।
नि:स्पृहता कर्मात हवी। चिंतन हे ॥ १२ ॥
स्वभाव येतो सुधारता। आचरणी ये मानवता।
ज्ञानी प्रिय साऱ्या जगता। उघडच हे ॥ १३ ॥
उच्च नीच हा भेद नसो। मी-माझे हा स्वार्थ नसो।
जो भेटे तो हरी दिसो। हा भाव ॥ १४ ॥
अध्यात्माचे हे ज्ञान। ईश्वरीय गीतागान।
अनासक्ती आहे प्राण। संतांचा ॥ १५ ॥
सुख द्यावे तर सुख घ्यावे। परकेपण ही लोपावे।
कुठेहि विश्वी विहरावे। मुक्तपणे ॥ १६ ॥
जे वाचावे, चिंतावे। कृतीत नेटे आणावे।
अध्यात्मे जग उजळावे। हे ज्ञान ॥ १७ ॥
तेरावा अध्याय असा। सत्कर्माचा देत वसा।
सामंजस्ये सुखी असा। हे सांगे ॥ १८ ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
No comments:
Post a Comment