सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी);
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय दुसरा - सांख्य योग
श्री गणेशाय नमः
आत्मरुपा गजानना। माझे मतीस द्या प्रेरणा।
ओघ ऐसा येवो लेखना। सरितेचा ।।१।।
करू नये शोक ज्याचा। पार्थ शोक करी त्याचा।
आविर्भाव पांडित्याचा। हासू येई ।।२।।
देह तितके नाशवंत। पार्थ हे न ध्यानी घेत।
करी आत्मा दुर्लक्षित। चूक मोठी ।।३।।
आत्मा नित्य, अविनाशी। अर्जुना तू न जाणशी।
‘देह मी’ हा हट्ट धरशी। दुःखी होशी ।।४।।
जे जे उपजे ते ते नाशे। नाशे ते ते पुन्हा दिसे।
चक्र वेगे चाललेसे। अखंडित ।।५।।
क्षत्रियांसी युद्ध कार्य। वीरालागी अपरिहार्य।
सर्वस्वी ते येथे धर्म्य। श्रेयस्कर ।।६।।
युद्धसिद्ध व्हावे पार्था। जाण आता मनोगता।
एकवटी बला आता। झुंजायासी ।।७।।
सुख-दुःखां मानी सम। जयाजया मानी सम।
विसर विसर ‘मी नि मम’। कैसे पाप? ।।८।।
युद्ध नको ऐसे म्हणशी। कर्तव्याला टाळतोसी।
दुष्कीर्तीला प्राप्त होशी। कीर्तिवंता ।।९।।
कर्मी जैसे सुखदुःख। कर्मत्यागी सुखदुःख।
जरा होई अंतर्मुख। क्षात्रवीरा ।।१०।।
हेतू शुद्ध असो द्यावा। न लगे करणे पस्तावा।
कर्म न टाळी हे पांडवा। घेई शस्त्र ।।११।।
प्रसंगाला तोंड द्यावे। माघारीचे नाव न घ्यावे।
चिंतन कितीतरी बरवे। चिंतेहून ।।१२।।
तुझा कर्मी अधिकार। सोडून दे फलविचार।
तेणे होई निर्विकार। तुझे चित्त ।।१३।।
नको नको फलासक्ती। मायापाशी गुंतवी ती।
सारे दोष त्वरे येती। स्वभावात ।।१४।।
वंदूनिया आत्मदेवा। तुझा तूच निर्णय घ्यावा।
गुंता तूच उकलावा। कौशल्याने ।।१५।।
विहित कर्मे करता करता। मने मनाला शिकविता।
आपोआप येई शुचिता। अंतरंगी ।।१६।।
सुखदुःख जैसे येई। सुखदुःख तैसे जाई।
करू नको बाऊ काही। कल्पनांचा ।।१७।।
पार्था तू न देहदास। आत्मतत्वा विसरलास।
शोकपंकी बुडालास। तुझा तूच ।।१८।।
तुझे भाग्य तुझ्या हाती। औदासीन्ये होई माती
जे जे कर्मे कंटाळती। अज्ञानी ते ।।१९।।
विवेकाने, विचाराने। कार्याकार्य स्वये जाणे।
त्याच्या भाग्य काय उणे। पाही तूच ।।२०।।
स्थितप्रज्ञ तसा हो तू। आत्मतृप्त तसा हो तू।
जितेंद्रिय तसा हो तू। निश्चयाने ।।२१।।
द्वितीयाध्याय ये आकारा। गुरुकृपेचा हा वारा।
तनी उमटे गोड शहारा। साफल्याचा ।।२२।।
।।श्रीकृष्णार्पणमस्तु।।
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