सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय पाचवा – कर्मसंन्यास योग
श्रीगणेशाय नमः
नमितो हे गजानना। धाव निश्चयरक्षणा।
ऐक ऐक बा प्रार्थना। या दासाची ॥ १ ॥
धाव मनाची बाहेरी। मनास फिरवी माघारी।
कामक्रोध महावैरी। ओळखावे ॥ २ ॥
भोग भोगतो देहाला। देह न भोगे भोगाला।
विषयांचा पडतो घाला। अचानक ॥ ३ ॥
कर्म टाळुनी ना टळते। करावेच युक्तीने ते।
संयमातुनी सुख मिळते। साधकासी ॥ ४ ॥
विकार जे येती मनी। तयां सर्वां आवरूनी।
अज्ञानी बनतो ज्ञानी। वैराग्याने ॥ ५ ॥
हाव हावरी नाचवते। विषयवासना नागवते।
मना रमविता ते रमते। भजनात ॥ ६ ॥
हट्ट मनाचा मोडावा। मोहासुर तो निपटावा।
सांभाळावे या जीवा। क्षणोक्षणी ॥ ७ ॥
ईशप्राप्ती ध्यास धरी। आळस ठेवी दूरवरी।
कर्म आदरे स्वये करी। उद्धरिण्या ॥ ८ ॥
विकार जर हे आवरले। त्याग संयमा आणवले।
श्रीहरीच सदनी आले। राहावया ॥ ९ ॥
जे उत्तम ते अर्पावे। कर्मे देवा पूजावे।
मने मनाला शिकवावे। दक्षपणे ॥ १० ॥
कामवासना नको नको। दुःखमूळ तो क्रोध नको।
फजीतवाडा नको नको। व्यवहारी ॥ ११ ॥
सुज्ञ बघे समदृष्टीने। ध्याना बसतो नेमाने।
भाग्या त्याच्या काय उणे? पाहा तरी ॥ १२ ॥
श्रीहरि कर्ता, करवी तो। कर्म तयास्तव ओळखतो।
कृष्णार्पण कर्मे करतो। धन्यच तो ॥ १३ ॥
व्यक्तीचे सुख क्षुद्र गमे। समाजकल्याणात रमे।
अलिप्ततेने करि कर्मे। हरिदास ॥ १४ ॥
घडतो मानव असा नवा। मेळवितो सद्गुणविभवा।
नारायण तो जाणावा। नरदेही ॥ १५ ॥
अंतर्मुख जो होत असे। स्वदोष ध्यानी घेत असे।
विकार यत्ने जिंकतसे। व्रतीच तो ॥ १६ ॥
निर्व्यसनी जो करी तप। आत तयाच्या नामजप।
ऐसा होई सुखरूप। विजयी तो ॥ १७ ॥
पूर्ण पाचवा अध्याय। मन आवरणे स्वाध्याय।
टळो शक्तिचा अपव्यय। साधक हो ॥ १८ ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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