Monday, June 26, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय पंधरावा – पुरुषोत्तम योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय पंधरावा – पुरुषोत्तम योग

श्रीगणेशाय नमः

गजानना हे पुरुषोत्तमा। किती गावा तुझा महिमा।
थक्कित जेथे उमा-रमा। पामर मी ॥ १ ॥
तो परमात्मा पुरुषोत्तम। तत्व आगळे महत्तम।
तो जाणे जो अरिंदम। व्यवहारी ॥ २ ॥
जगरूपी अश्वत्थ पहा। वेद वानिती ऐक पहा।
मुळात ईश्वर दिसे न हा। आश्चर्य ॥ ३ ॥
कर्मे घडवी भलीबुरी। फळे तयांची भलीबुरी।
जो तो अंगुलि मुखी धरी। भांबावे ॥ ४ ॥
हाव हावरी नाचवते। हरिण धावुनी उरि फुटते।
दूर दूर ते सुख पळते। दुःख मिळे ॥ ५ ॥
लोभ धनाचा सोडावा। मद सत्तेचा सोडावा।
का करणे हेवादावा। तूच पाहा ॥ ६ ॥
जिंकायाचे मोहाला। खंडायाचे दु:खाला।
अज्ञानावरती घाला। घालू या ॥ ७ ॥
अनासक्ति दे शांति मना। प्रवेशते अंतरि करुणा।
हीच हीच ती सुधारणा। ये घडुन ॥ ८ ॥
रजोगुणाते सोडावे। तमोगुणाते टाकावे।
सत्वगुणाला जोडावे। मनुजाने ॥ ९ ॥
जधी जाणवे एकपणा। रंग चढतसे हरिभजना।
सुख येते चालत सदना। भक्ताच्या ॥ १० ॥
अंश ईश्वरी आहे मी। ज्ञानी मानव धरी मनी।
द्वंद्वे त्यजुनी शांति वरी। तो सुखिया ॥ ११ ॥
अनंत विश्वी चैतन्य। अनुभविणारा ही धन्य।
काय करत त्या कार्पण्य। ज्ञानियाला ॥ १२ ॥
या देहाचा मोह नसे।  मी कर्ता हा गर्व नसे। 
द्वंद्व मुक्त जो नित्य असे। तो विरळा ॥ १३ ॥
देह क्षर अक्षर आत्मा। श्रेष्ठ याहुनी परमात्मा।
पुरुषोत्तम त्यालाच म्हणा। असीम तो ॥ १४ ॥
जाणावे विश्वात्मक देवा। उठता बसता तो ध्यावा।
साधक विश्वात्मक व्हावा। पुरुषार्थी ॥ १५ ॥
रूपकास पिंपळवृक्ष। श्रोत्यांचे वेधी लक्ष।
राहू आचरणी दक्ष। संकल्प ॥ १६ ॥
लिहवुन इतके तू घेशी। गुरुमाउली तू गमशी।
सुगम सुगम गीता करशी। दयाघना ॥ १७ ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
    

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