Wednesday, June 14, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय चौथा – कर्मब्रह्मार्पण योग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी) 
अध्याय चौथा – कर्मब्रह्मार्पण योग
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

श्रीगणेशाय नमः

गजानना तू सुविचार। मूर्तिमंत सदाचार।
या सर्वाचा मूलाधार। माझ्या मनी ॥ १ ॥
दुर्गुणांची वाढ होते। जग अंधारे ग्रासते।
दुराचारा भरती येते। अराजक ॥ २ ॥
कोण सज्जन्नांना तारी? कोण जनांचा कैवारी?
कोण दुष्टांना संहारी? कुतूहल ॥ ३ ॥
सज्जन्नांना रक्षायास। दुर्वृत्तीला दंडायास।
धर्मराज्य स्थापायास। अवतार ॥ ४ ॥
अहंकार, स्वार्थ नाही। कर्मफली आशा नाही।
कर्मबंध लेश नाही। मुळी मुक्त ॥ ५ ॥
असू कर्तव्यात दक्ष। घेऊ सत्याचाच पक्ष।
ठेवू अंतर्बाह्य लक्ष। तर भक्त ॥ ६ ॥
भगवंत आहे कोठे? भगवंत नाही कोठे?
जेथे श्रद्धा उगवते। तेथे देव ॥ ७ ॥
योगवृत्ती ती जाणावी। हळूहळू वाढवावी।
कर्मे तैशी आचरावी। पूजा तीच ॥ ८ ॥
जे जे सहज मिळाले। त्यात संतुष्ट जाहले।
द्वंद्वी नाहीच गुंतले। विमुक्त ते ॥ ९ ॥
सत्कर्माचे चक्र चालो। अज्ञाने ना मन मळो।
अहंभाव सारा गळो। आस हीच ॥ १० ॥
नम्रभावे गुरु मिळे। गुरुसेवेने तो मिळे।
प्रश्न केल्या ज्ञान मिळे। स्वरूपाचे ॥ ११ ॥
ज्ञान होता मोह जाई। सर्व एकरूप पाही।
दुजाभाव नुरे काही। एक ब्रह्म ॥ १२ ॥
असो कोणी दुराचारी। ज्ञाने होय सदाचारी।
प्रभु दिनांचा कैवारी। ज्ञानदाता ॥ १३ ॥
ज्याची श्रद्धा त्याला ज्ञान। नम्र तोच, तो महान।
शांत, दांत तो सुजाण। रुचे देवा ॥ १४ ॥
ज्ञानखड्ग करी घ्यावे। सर्व संशय छेदावे।
आत्मरूप ते पहावे। दक्षतेने ॥ १५ ॥
कृष्ण सांगे उठ पार्था। कर्मयोग आचरीता।
लाभे देहीच मुक्तता। आण माझी ॥ १६ ॥
आत्मज्ञान अंतरात। गुरुमुखे उदैजत।
मन सुशांत, निभ्रांत। परिणामी ॥ १७ ॥
करू जाता कार्य होते। शिकू जाता ज्ञान येते।
गीता सोपी सोपी होते। अभ्यासूला ॥ १८ ॥
चौथा अध्याय गीतेचा। गाई महिमा ज्ञानाचा।
मी तो आहे ईश्वराचा। भक्तभाव ॥ १९ ॥
दिव्य विचारच राम। दिव्य विचारच कृष्ण।
चौथा अध्याय हो पूर्ण। चिंतनी या ॥ २० ॥

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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