सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले
अध्याय सहावा – आत्मसंयम योग
श्रीगणेशाय नमः
आत्मबला दे गजानना। तूच चालवी उपासना।
कृतीशील मज बनवीना। प्रार्थित मी ॥ १ ॥
मने मनाला शिकवावे। आपण अपणा घडवावे।
धैर्य कदापि न सोडावे। स्थैर्य जमे ॥ २ ॥
विकारवश हो तेहि मन। निर्विकार हो तेहि मन।
शत्रु-मित्र वा तेचि मन। पहा बरे ॥ ३ ॥
ज्ञानदान सद्गुरु करी। मार्ग सुगम जरि तो विवरी।
शिष्य आचरण करी जरी। प्रगती ती ॥ ४ ॥
रसना आपण जिंकावी। शिवी परतुनी लावावी।
हाव खायची सोडावी। हळू हळू ॥ ५ ॥
कर हे कर्मे करतात। मति दे ज्ञानार्जनि साथ।
प्रगति करी मन ध्यानात। तूच पाहा ॥ ६ ॥
निश्चय पक्का तूच करी। सुधारेन मी ध्यास धरी।
आत्मनिरीक्षण नित्य करी। उपाय हा ॥ ७ ॥
चंचल मन हे आवरते। प्रगतिपथावर चालवते।
निर्वासन मन हे बनते। संयमने ॥ ८ ॥
दास मनाचा मी नाही। इंद्रियवश कधिही नाही
मन हे अंकित मम राही। सवयीने ॥ ९ ॥
दोष आपले कळतात। सद्गुरु भेटत ध्यानात।
सद्गुण ये आचारात। ही प्रगती ॥ १० ॥
अशक्य यत्ना काय असे? उणीव ध्यासाचीच असे।
मन आवरते अभ्यासे। अनुभूती ॥ ११ ॥
स्वस्थ बसावे निमिषार्ध। खचित लाभतो एकांत।
श्रीहरि दर्शन दे आत। भजनात ॥ १२ ॥
‘सोsहं’, ‘तो मी’ भाव हवा। शुद्ध विचारे शुद्ध हवा।
एकपणा ये स्वानुभवा। जागरुका ॥ १३ ॥
जे जे उत्तम आवडते। अमन मनाचे हे घडते।
आत्मवस्तु ही सापडते। गुरुकृपा ॥ १४ ॥
छंद हवा अभ्यासाचा। हात हवा वैराग्याचा।
हाट भरे परमार्थाचा। सुयोग हा ॥ १५ ॥
नाम जोडणे श्वासाला। मन लागे अभ्यासाला।
न कळे काळ किती गेला। लाभच हा ॥ १६ ॥
सुधारणा ती हीच असे। सद्गुरु भेटे आपैसे।
तेज आगळे वदनि दिसे। उन्नति ही ॥ १७ ॥
आले अपयश यत्नि जरी। खचू न द्यावे मना तरी।
तूच तुझा उद्धार करी। यश अंती ॥ १८ ॥
कर्म आपले साधन हे। ज्ञान आपले साधन हे।
ध्यानहि आहे साधन हे। साक्षात्कारा। ॥ १९ ॥
‘मी माझे’ हे विसरावे। विश्वच घर हे वाटावे।
सर्वात्मक आपण व्हावे। ध्यास जडो ॥ २० ॥
षष्ठाध्याया नसे तुला। गंध आगळा शुद्ध फुलां।
ध्यानयोग हा सांगितला। भगवन्ते ॥ २१ ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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