Tuesday, June 13, 2017

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी); अध्याय तिसरा - कर्मयोग

सार-गर्भ श्रीगीता (श्रीगीता पोथी)
रचयिता : श्रीराम बाळकृष्ण आठवले

अध्याय तिसरा : कर्मयोग
श्री गणेशाय नमः

वंदना घे गजानना। करी शांत माझ्या मना।
करी वृष्टी दयाघना। संतोषाची ॥ १ ॥
देह सुखे करो काम। मुखी असो हरिनाम।
शुद्ध भाव शांतिधाम। कर्मयोग ॥ २ ॥
कर्म लागे करावे ते। कोणालाही टळे न ते।
दृष्टी सुखदुःख देते। सोडी स्वार्थ ॥ ३ ॥
मी ना कर्ता, भान हवे। कर्म साधन स्वभावे।
सुज्ञ व्हावे अनुभवे। ज्याचे त्याने ॥ ४ ॥
करू आपले जे काम। ईशसेवा समजून।
तेणे जनसंरक्षण। व्यवस्था ही ॥ ५ ॥
माझे, माझे ओझे शिरी। त्रस्त सर्व नरनारी।
ऐशा कर्मी कष्ट भारी। येई शीण ॥ ६ ॥
लोभ मूळ पातकाचे। लोभ कारण दु:खाचे।
लोभ रूप अतृप्तीचे। सावधान ॥ ७ ॥
व्यक्ती समाजाची ऋणी। पार्था असो ध्यानीमनी।
जगन्नाथ जनार्दनी। जाण बापा ॥ ८ ॥
त्याग नाव यज्ञाचेच। सेवा रूप यज्ञाचेच।
दान नाव यज्ञाचेच। सुखी दानी ॥ ९ ॥
थोर जैसे वागतात। सान तैसे वागतात।
द्यावा कर्तव्याचा पाठ। धुरिणाने ॥ १० ॥
कामक्रोधा नको थारा। रजोगुण मागे सारा।
वृत्ती आपली सुधारा। करा त्वरा ॥ ११ ॥
जेथे लोभाचा प्रभाव। तेथे शांतीला ना वाव।
अनागोंदी हेच नाव। शोभे तेथे ॥ १२ ॥
मनःशांती महत्वाची। नको वासना भोगाची।
उच्च जागा ती बुद्धीची। आत्मा थोर ॥ १३ ॥
माझे कर्म जनांसाठी। जनांसाठी, देशासाठी।
देशासाठी, देवासाठी। हवी जाण ॥ १४ ॥
गौण लौकिक-सन्मान। गौण मान-अपमान
लाभे अंत:समाधान। कर्मवीरा ॥ १५ ॥
जोड नाते समाजाशी। का न आस्था कर्मी घेशी?
सिद्ध होई तू त्यागासी। धनंजया ॥ १६ ॥
फलत्यागे साधे योग। दूर जाय भवरोग।
ऐसा साधे कर्मयोग। भाविकाला ॥ १७ ॥
शुद्ध आणि शांत मन। योगवृत्तीची ही खूण।
घेई पार्था समजून। होई ज्ञानी ॥ १८ ॥
आहे कर्मात आनंद। आहे अंतरी आनंद।
आहे चिंतनी आनंद। साधकाच्या ॥ १९ ॥
तृतीयाध्याय हा पूर्ण। गुरुकृपेची ही खूण।
राम कंठ ये दाटून। बोलवेना ॥ २० ॥
॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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